जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !!
मोहब्बत एक अहसासों की पावन सी कहानी है !
कभी कबिरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !!
यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं !
जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !!
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मोहब्बत एक अहसासों की पावन सी कहानी है !
कभी कबिरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !!
यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं !
जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !!
कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है !
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !!
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है !
ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !!
अफगानिस्तान को "साम्राज्यों का कब्रिस्तान" कहा जाता है. साम्राज्य के बाद साम्राज्य, सुपरपॉवर के बाद सुपरपॉवर, आज तक अफगानिस्तान पर लंबे समय तक शांतिपूर्वक शासन नहीं कर पाए हैं. और अधिकतर तो जान माल और इज्जत तीनों गंवा कर लौटे हैं. अमेरिका इस सिलसिले की ताजातरीन कड़ी है, पर यकीन मानिये आखिरी नहीं 😊
बहुत से देश राज करने के दृष्टिकोण से कठिन होते हैं. वृहद भूभाग, विशाल - विविध जनसंख्या, मुश्किल टापोग्राफी समस्या उत्पन्न करते हैं. पर इस लिहाज से कई देश अफगानिस्तान से भी कठिन होने चाहिए, उदाहरण के तौर पर भारत और चीन. पर ऐसा नहीं है, आखिर क्यों?
अफगानिस्तान आखिर अपनी तरह का विरला देश कैसे है...
चलिए कोशिश करते हैं गुत्थी सुलझाने की...
अफगानिस्तान को फतह करना आसान है इस जीत को बरकरार रखना मुश्किल, या कहें करीब करीब असम्भव!
1842 के ब्रिटेन-अफ़ग़ान युद्ध मे सिर्फ एक सैनिक जिंदा वापस भारत आया था, और वो था विलियम ब्राइडन. जब उससे पूछा गया बाकी के 15 हजार सैनिक कहां है, तब खून से लथपथ ब्राइडन ने कहा "पूरी फौज में इकलौता मैं ही बचा हू" 😂
इतिहास गवाह है कि अफगानिस्तान में विदेशी शक्तियों द्वारा समर्थित शासक को गद्दी पर बिठाने से कहीं बेहतर है किसी लोकप्रिय समर्थन वाले स्थानीय शासक के साथ व्यावहार और व्यापार करना.
पर समय के साथ ऐसे छत्रप अक्सर लालची और अलोकप्रिय हो जाते हैं और उनको पालने की लागत भी काफी बढ़ जाती है.
साम्राज्य जितनी ताकत इनके पीछे झोंकता है ये उतने क्रूर और अलोकप्रिय हो जाते हैं. अंततः अंजाम वही होता है जो दाउद का हुआ, जो नजीबुल्ला का हुआ, जो नूर मोहम्मद तरकी और हफिजुल्ला अमीन का हुआ. बेरहम कत्ल!
(तालिबान ने 1996 मे देश के पूर्व राष्ट्रपति नजीबुल्ला को - जो जान बचाने के लिए UN कंपाउंड मे 4 साल से छुपे थे - को घसीटकर सड़क पर लाए, जमकर पीटा, गुप्तांग काट डाले, सर में गोली मारी और जब वो मर गए तो काबुल की सड़कों पर जीप के पीछे बांधकर कई किलोमीटर घसीटा गया. जब ये जश्न खत्म हुआ तब थक हारकर राष्ट्रपति भवन के सामने ही एक लैम्प पोस्ट से लटका दिया. कई दिनों तक उनकी लाश ऐसी ही लटकी रही, रेड क्रॉस ने बड़े मान मनौती करके फिर उन्हें दफन कराया. दूसरी लाश उनके भाई की है.)
इस नीति की नीव मुगलों ने डाली थी. और भले ही यह स्ट्रेटजी लंबे समय तक सफल नहीं रह सकती, ये बाकी मौजूद विकल्पों के मुकाबले बेहतर समझी जाती रही.
मुगल विभिन्न जनजातियों को पैसे या आंशिक स्वायत्तता का लालच देकर अफगानिस्तान को शिथिल रूप से नियंत्रित रखते थे. केंद्रीकृत नियंत्रण जैसी किसी भी चीज के प्रयास, यहां तक कि देशी अफगान सरकारों द्वारा भी, हमेशा से आत्मघाती रहे हैं.
तो आखिर अफगानिस्तान पर शासन रखना इतना मुश्किल है क्यों? इसके मुख्य रूप से तीन कारक है.
1. अफगानिस्तान एक चौराहा है. सेंट्रल एशिया से दक्षिण एशिया की तरफ कूच करना हो या पश्चिम एशिया से चीन जाना हो. इस इलाके पर नियंत्रण जरूरी है. इसलिए हर साम्राज्यवादी ताकतें इसे जंग का अखाड़ा बनाती आयी हैं.
इस अभागे देश ने शांति के दस लगातर साल शायद ही कभी देखा हो.
अनगिनत हमलों ने डेमोग्राफी भी बदली और नतीजतन देश ढेरों परस्पर विरोधी जनजातियों द्वारा बसा पड़ा है. जिनमे कबीलाई आजादी की भावना इतनी गहरी है कि किसी बाहरी का दासत्व स्वीकार ही नहीं कर सकती.
2. इससे उत्पन्न अराजकता एक ऐसी स्थिति को जन्म देती है जहां लगभग हर गांव/घर एक किले की तरह बनता और व्यवहार करता है.
3. अफगानिस्तान का भौतिक भूभाग विजय और शासन को अत्यंत कठिन बना देता है, जिससे उसकी कबीलाई प्रवृत्तियों में वृद्धि होती है. अफगानिस्तान में दुनिया के कुछ सबसे ऊंचे और अधिक दांतेदार पहाड़ों का प्रभुत्व है। इनमें हिंदू कुश शामिल है, जो देश पर हावी है और देश के केंद्र और दक्षिण के साथ-साथ पूर्व में पामीर पहाड़ों के माध्यम से चलता है. पामीर गाँठ - जहाँ हिंदू कुश, पामीर, तियान शान, कुनलुन और हिमालय सभी मिलते हैं, उत्तर-पूर्व अफगानिस्तान में बदख्शां में स्थित है.
अफगानिस्तान के इतिहास का एक सर्वेक्षण दर्शाता है कि देश पर कब्जा करना और शासन करना कितना कठिन है। हमें सबसे पहले पांच सौ ईसा पूर्व के आसपास अफगानिस्तान के इतिहास की स्पष्ट झलक मिलती है, जब इसे असेमेनिद (फारसी) साम्राज्य का पूर्वी भाग बनाया. अफगानिस्तान के कुछ हिस्से पहले प्राचीन भारतीय साम्राज्य गांधार का हिस्सा थे, जो अब उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी अफगानिस्तान में एक क्षेत्र है. संभवतः, दक्षिणी और पूर्वी अफगानिस्तान का अधिकांश भाग पहले से ही आज के पश्तून के पूर्वजों द्वारा बसा हुआ था; उनकी पश्तो भाषा एक प्राचीन पूर्वी ईरानी भाषा है जो पारसी धर्मग्रंथों की मूल भाषा अवेस्तान से निकटता से संबंधित है. इस समय अफगानिस्तान अपेक्षाकृत कम आबादी वाला था, क्योंकि सिकंदर महान के बारे में बताया जाता है कि वह इस क्षेत्र में बहुत कम प्रतिरोध के साथ बढ़ता गया था.
सिकंदर के सेनापति सेल्युकस - जो सिकंदर की असमय मौत के बाद यहाँ का शासक बना - ने दहेज के रूप में अफगानिस्तान अपने दामाद चंद्रगुप्त मौर्य को सौंप दिया था.
इसके बाद, भारत के मौर्य साम्राज्य ने अधिकांश अफगानिस्तान को नियंत्रित किया, और इस अवधि के दौरान पूरे क्षेत्र में बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म फैल गया. मौर्य साम्राज्य के पतन और मध्य एशिया से कई आक्रमणों के बाद ही अफगानिस्तान के पहाड़ "भरने" लगे.
अधिकतर आबादी पहाड़ों के बीच की घाटियों में बसी और फली फूली. घाटीयां एक दूसरे से कटी होने के कारण अलग अलग कबीलों के गढ़ बनती गयी. और अपने व्यक्तिगत घाटियों की रक्षा करने वाले कई युद्धप्रिय "वारलार्ड" की संस्कृति पनपी जो आज तक जीवित है.
हर जनजातीय कबीलों ने अपने अपने गौरव काल में अफगानिस्तान के भीतर साम्राज्यों की स्थापना की। इनमें ग्रीको-बैक्ट्रियन, इंडो-पार्थियन, शक (सीथियन), कुषाण, किदाराइट्स और हेफ्थलाइट्स (व्हाइट हूण) शामिल थे. इस समय तक, इस क्षेत्र ने जुझारूपन की एक अनोखी प्रतिष्ठा हासिल कर ली थी. जब आठवीं शताब्दी की शुरुआत में अरब इस क्षेत्र में पहुंचे, तो यह छोटी लेकिन कठिन रियासतों का एक तानाबाना था. कंधार के ज़ुनबिलों को जीतने के प्रयास बुरी तरह विफल रहे, अरबों को उनकी महान विजय के बाद लगा ये पहला बड़ा झटका था. ज़ुनबिल्स के खिलाफ भेजे गए बीस हजार सैनिकों का एक अभियान महज पांच हजार लोगों के साथ लौटा. अफगानिस्तान को पश्चिम से पूर्व तक इस्लामी होने में लगभग 200 साल लग गए, एक प्रक्रिया जो केवल तब पूरी हुई जब ईरान के साथ सीमा पर अफगानिस्तान में जरंज में पैदा हुए एक फारसी लोहार याकूब इब्न अल-लेथ अल-सफर ने काबुल पर विजय प्राप्त की. फिर भी, सहस्राब्दी के मोड़ के आसपास महमूद गजनी द्वारा विजय प्राप्त करने तक हिंदू शाही राजवंश आज के अफगानिस्तान के पूर्वी हिस्सों में और सौ साल तक चला.
जब मंगोल अफगानिस्तान पहुंचे, तो उन्हें बामियान घाटी में अविस्मरणीय प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. भयंकर प्रतिरोध मे चंगेज खान का पोता मारा गया. क्रोध में, मंगोलों ने घाटी के अधिकांश मूल निवासियों को मार डाला: वहां रहने वाले अधिकांश आधुनिक हजारा एक मंगोल टुकड़ी के वंशज हैं, जिनमें से कुछ लोगों ने ताजिक महिलाओं से शादी की. मंगोल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद फिर से विखंडन शुरू हुआ.
पहला मुगल सम्राट, जहिर-उद-दीन मुहम्मद बाबर, दिल्ली पर कब्ज़ा करने से पहले दो दशकों तक जुझता रहा तब जाकर काबुल में एक छोटा सा राज्य पा सका.
अधिकांश हिंदू कुश क्षेत्र 1738 तक ढीले-ढाले मुगल नियंत्रण में रहा जबतक की नादेर शाह ने इसे जीत नहीं लिया.
जी हाँ, उसी लुटेरे नादिर शाह का जिसने अगले ही साल दिल्ली को तहस नहस कर डाला और तैमूर (1498) की डरावनी यादें ताजा कर दी.
अहमद शाह अब्दाली (सही पहचाना, वही पानीपत वाला) इसी नादिर शाह का वजीर था और शाह के मरने के बाद अपने हिस्से के इलाके (वर्तमान का अफगानिस्तान) को पहली बार एक राष्ट्र के रूप में स्थापित किया. आज जो अफगानिस्तान का मानचित्र हम देखते हैं वो नादिर शाह की ही देन है.
मुगल साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में गजनी और मध्य अफगानिस्तान में बामियान तक था; दशकों तक कंधार के लिए फारसी सफाविद साम्राज्य से लड़ने के बाद, उन्होंने शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान इसे स्थायी रूप से खो दिया. सफाविद को भी विद्रोही अफगान कबीलों से जूझना पड़ा. पश्तून जनजातियों को नियंत्रित करने और उन्हें शिया इस्लाम में परिवर्तित करने के फारसी प्रयासों के कारण अंततः 1709 में कंधार में सफाविद के खिलाफ विद्रोह छिड़ गया. यही कारण है कि पश्तून आज भी सुन्नी है. अफगान विद्रोह ने सफाविद साम्राज्य को गिरा दिया.
गौर करने वाली बात यह है कि अफगानिस्तान पर प्रत्यक्ष मुगल शासन महज कुछ शहरों भर का था, और अपेक्षाकृत दुर्गम ग्रामीण इलाके उनके वारलार्ड ही चलाते थे. जब तक पैसे आते रहते वारलार्ड हुक्म बजाते वर्ना...
यही नीति आज तक चलती आ रही है चाहे अंग्रेज हो या अमेरिकी सबने यही दुहराया.
तब से, जैसा कि ब्रिटिश, रूस और अब अमेरिका सबने सीखा है, यह धारणा और मजबूत होती गयी है कि अफगानिस्तान को अस्थायी रूप से जीतना तो संभव है - और खुली लड़ाई में अफगानों को सैन्य रूप से हराना संभव है - इस क्षेत्र को लंबे समय तक काबु मे रखना लगभग असंभव है.
अफगानिस्तान के लोगों के पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है (ठीक इस्राइल की तरह) और यही उनकी सबसे बड़ी ताकत है. वे अपना पूरा जीवन (विदेशियों, विशेष रूप से कंधार क्षेत्र से सावधान) आराम से लड़ते हुए बिता सकते हैं. जरा बताए, यह ज़ज्बा और कितने मुल्कों के लोगों मे है?
पूरी दुनिया, विशेषकर महाशक्तियों को यह समझना चाहिए, और अफगानिस्तान के इतिहास से सीखना चाहिए कि आप इसे जीत नहीं सकते. पता नहीं यह डायलॉग कितना सही है कि मुल्ला उमर ने अमेरिका के हमले पर कहा था कि…
You have the watch, we have the time!!
अफगानिस्तान से निपटने का एकमात्र तरीका स्थानीय शक्तियों को मैनेज करना. और अगर इसका मतलब है तालिबान को स्वीकार करना, स्थिरता के बदले में उनसे आतंकवाद खत्म करने का वादा लेना, तो ऐसा ही हो.
क्योंकि विकल्प एक अजेय, कभी न खत्म होने वाला विध्वंसक युद्ध है. क्या आप इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार है.. 😊??